निहारिका
photo credit @ Roop Singh
निहारिका
ज्येष्ठ माह की एक साधारण सी दोपहर थी वह | गौशाला के लिए, कम ऊंचाई वाली भीत की चिनाई का काम चल रहा था | मैं ईंट दर ईंट लगाकर भीत की चिनाई कर रहा था और मेरी सहायिका 'मधु' मुझे ईंट और गारा थमा रही थी| हुआ यूं कि मधु को बीच में ही काम छोड़कर अपने घर जाना पड़ा| उसका बच्चा बीमार था इस कारण | सो, सरपंच ने एक दूसरी सहायिका का प्रबंध मेरे लिए करा दिया| जो कि उनके घर पर ही काम कर रही थी और तब तक मैं दोपहर का भोजन कर चुका था |
कुछ एक क्षण में ही मेरी नई सहायिका ने अपने चेहरे से घूंघट हटा दिया | उसकी यह सहजता देखकर मैं चौंक गया | वह भी यही चाहती थी, के मैं उसका चेहरा देखूं| जबकि मैं उसे पहचानता भी नहीं था|
लेकिन वह मुझे पहचान गई थी|
बात कुछ उसने यूं छेड़ी |
पहले पहल वह चुटकी लेते हुए ,मुझसे पूछने लगी "बताओ तुम्हारी आयु क्या है" ? जैसे, नाम तो वह मेरा जानती ही थी !
मैंने भी मजाकिया अंदाज में कह दिया " बस तुम्हारे समकक्ष ही होगी"| और इस तरह मैंने सवाल उल्टा दाग दिया, " तुम ही बताओ तुम्हारी आयु क्या है" ?
वह थोड़ा सकपकाई और सम्मोहक मुख बनाकर बोली " जब तुमने समकक्ष बोल ही दिया है तो अब आयु बताने का तात्पर्य भी क्या" | और वह हल्का मुस्कुराई भी| तब मैंने देखा, धूप की चमक उसकी नथुनी के नग पर पड़ रही है, जो रह रह कर मेरी आंखों से टकरा रही है | ये बड़ी खूबसूरत सी बात, मेरी दिलचस्पी को बढ़ाने लगी|और अब ! मेरे मन में एक प्रसन्नता की लहर दौड़ी, जाने कैसी लहर पर हां दौड़ी ! एक प्रसन्नता की लहर |
मैंने कहा, " चलो छोड़ो बातें करना, काम पर ध्यान दो नहीं तो सरपंच जी क्रोधित होंगे, बातें ना करो काम करो " |
वह बोली, " जाने कैसे ! आज तुमसे मिलना हुआ है, अब काम नहीं करना | बातें करनी है, बस ! " क्या तुम्हें पता है हम पहले भी मिले हैं" ?
मैं चौंक गया "क्या हम पहले कभी मिले हैं" ?
अब मैंने उसको फिर से देखा और गौर से देखा , उसकी भवें, उसका नयन-नक्श, उसकी आंखें, उसकी ठोढी , गर्दन , कद काठी, रूप-रंग पर ! पहचान नहीं पाया ?
एक बार फिर से आँखे बंद कर के अपनी ,विगत स्मृतियों मैं झाँककर देखा | पर उसका चेहरा ! नहीं पहचान पाया ? पर हां ! लग ये रहा था, के वह सच बोल रही है | के हम पहले कभी मिले हें |
मैंने कहा, " हम तो पहले कभी भी नहीं मिले और मैंने तुम्हें पहले कभी नहीं देखा" |
अब उसकी आंखें नम हो चली थी और उदास स्वर में उसने कहा "याद करो पंद्रह एक बरस पहले की बात है, जब तुम एक विवाह समारोह में गए थे | तुमने अपने गायन के लिए बहुत तालियाँ बटोरी थी| तब एक सज्जन (मेरे पिता) ने अपनी बेटी के विवाह के लिए, तुम्हारे सामने प्रस्ताव रखा और तब एक औपचारिक मुलाकात में हम एक दूसरे को मिले थे | क्या तुम्हें याद है "?
तब मेरे माथे में एक बिजली कौंधी और मैंने ईंट और वसूली एक तरफ रख दी | उसकी आंखों में गहराई से देखा, अब में उसे पहचान गया था ।
हां ! यह वही तो है सचमुच, वही जिसके लिए मैंने विवाह न करने का फैसला किया था | जिसके लिए बरसों से एकाकी जीवन जी रहा हूं, मैं |वही जो मेरे सपनो और कल्पनाओं में डोलती रही है अप्सरा जैसी | अब तक इसी एक चाह को तो मैं ढोता आया हूं , के तुम मुझे मिल जाओगी कभी |
पर क्या पता था, सरकते हुए जीवन में इतने अरसे बाद ! तुम इस तरह मिलोगी ?
खैर !
मुझसे रहा ना गया और मैंने उसका हाथ पकड़ लिया, मैंने कहा, "हां, अब मैं तुम्हें पहचान गया हूं "|
वह बहोत खुश हुई और कहने लगी, " मैंने ढेरों सपने देखे तुम्हारे लिए और हमारे साथ के लिए "|
मैं और उतावला हो चला था, अब मैं उसे गले लगाना चाहता था, उसे विहाना चाहता था |मैंने जैसे ही उसे अपनी ओर खींचने की चाह स्पष्ट कि , उसने अपना हाथ पीछे खींच लिया |
कहने लगी " अब सब व्यर्थ है , मैं अब एक व्याहता स्त्री हूं "|
मैंने अपने कोरे हाथ को देखा और फिर उसकी आंखों में देखा | मुझे उसकी आंखों में बहुत से सूखे पेड़ नजर आए | जो अब सूख चुके थे | पूरी तरह !
कुछ एक क्षण में ही मैंने उस बरसों के एकांत को महसूस किया, जो मैं जी कर आया हूं | सांस उठी और दबी |
उसने और मैंने, मौन अवस्था में एक दूसरे को गहराई तक निहारा, पर कुछ भी समझ न आया ? ना भूत ना भविष्य
फिर मैंने पूछा " अच्छा तो बस यही बताओ , तुम्हारा नाम क्या है और तुम कहां से आई हो ?
बहुत संक्षेप में वह बोली
"निहारिका" ......" रगुंआ वास" से
और वह रोती हुई लौट गई |
(c) @ Roop Singh 04/11/2024