एक बरस बीता
एक बरस बीता
चौमासे ने धो डाले आंगन से. ..
मां के हाथों से बने रंगोली-मांडुड़े ...
के ! बूढे माँ-बाप को चल बसे...
अब एक बरस बीता..... !!
गाँव की माटी घर के आंगन से उपड़ी. ..
बनकर पपड़ी. ..
और मूसलधार बारिश से...
दहलीज़ पर हो गये कितने छेद. ..!!
बेटा जो परदेस गया था..
वो आखिर कब लौटेगा ..?
के, इंतज़ार रह गया रीता का रीता....
बूढे माँ बाप को चल बसे. ...
एक बरस बीता. ....!!
फूंस के छप्पर में दरारें पड़ गयी...
अब सूरज झाँके , अम्बर ताके. ..
और चूल्हे की भीतें तो राख मे भीतर को ढेह गई ...
यहाँ तक के,मक्के - बाजरे की रोटियों की खुशबू
यादों से भी , संग ले गई चिता....
के, बूढे माँ बाप को चल बसे. ..
एक बरस बीता. ..!!
अब सूने पड़े घर की ,चहल - चमक कौन लौटाए..?
जब अपने ही घर को न बापस, लौट कर अपने आए. ...
वाह रे परदेस..!
कैसी तेरी प्रीती कैसा तेरा नाता...
के जो जाता, फिर ना लौट के आता...!
गांव घर आंगन , अब सूने पन मे जीता...!
के ! बूढे माँ बाप को चल बसे....
अब एक बरस बीता. .....!!
(c) @ Roop Singh 20/09/2018
Photo credit @ Roop Singh
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